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पंडित दीनदयाल उपाध्याय : जीवनी ( जन्म, शिक्षा, योगदान) – 2024.

पंडित दीनदयाल उपाध्याय

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पंडित दीनदयाल उपाध्याय : परिचय

पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी भारत के एक अनूठे चेहरे थे। उनके विचार और कार्यों ने लोगों को अपनी ओर खींच लिया, उन्होंने वहाँ आकर्षण का सृजन किया जिससे वे एक अलग मुकाम हासिल कर गए।. ये पेशे से एक महान राजनेता थे, जोकि भारतीय जन संघनामक बड़ी पार्टी के अध्यक्ष थे. इसे वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नाम से जाना जाता है. उन्होंने भारत की आजादी के बाद लोकतंत्र को अलग परिभाषा देते हुए देश के निर्माण के लिए कई कार्य किये, जिससे वे आज भी स्मरणीय हैं। छोटी उम्र से ही संघर्षो भरा जीवन जीते दीनदयाल समाज के लिए एक मिसाल है.

जन्म और प्रारंभिक जीवन :

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर 1916 को धनकिया नामक स्थान, जयपुर अजमेर रेलवे लाइन के पास [राजस्थान] में हुआ था। उनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय था,और उनकी माँ का नाम रामप्यारी था। उनका पैतृक गांव नागला चंद्रभान था, जो कि फरह, मथुरा में स्थित था। कहां जाता है की यह एक मध्यम वर्गीय परिवार का हिस्सा थे. उनके दादाजी पंडित हरिराम उपाध्याय एक पौराणिक ज्योतिषी थे. उनके पिता जलेसर में सहायक स्टेशन मास्टर थे और उनकी माता एक धार्मिक रीतिरिवाज को मानने वाली महिला थी. इसके अलावा इनके परिवार में इनके भाई शामिल थे जो उनसे 2 साल छोटे थे । सन 1918 में जब उनके पिता की मृत्यु हुई, तब उनकी उम्र केवल ढाई साल थी. जिससे उनके परिवार का भरण पोषण बंद हो गया था. तब उनके नानाजी जी ने उनके परिवार को संभाला. उसके बाद उनकी माता की भी की बीमारी के चलते मृत्यु हो गई, जिससे दीनदयाल जी एवं उनके भाई दोनों अनाथ हो गए. किन्तु उनका पालन – पोषण उनके ननिहाल में बेहतर तरीके से हुआ. उनका ननिहाल फतेहपुर सीकरी के पास स्थित गाँव गुड की मंडी का था. जब वे केवल 10 वर्ष के थे, तब उनके नाना जी का भी देहांत हो गया था. इस तरह से उन्होंने बहुत छोटी सी उम्र में अपने परिवार को खो दिया था. अब उनका केवल एक ही सहारा था उनका भाई शिवदयाल .वे दोनों अपने मामा जी के साथ ही रहते थे. उनके मामा ने उन्हें स्नेह से पाला था, जैसे अपने बच्चों को। दीनदयाल जी अपने भाई से विशेष प्रेम करते थे। उनके भाई को छोटी उम्र में ही एक गंभीर बीमारी लग गई थी. जिसके कारण उन्होंने अपने भाई शिवदयाल को एक अभिभावक के रूप में संभाला. लेकिन 18 नवंबर 1934 को उनके भाई की एक बीमारी के कारण मौत हो गई। उसके बाद से उन्हें अकेलापन का अनुभव हुआ, और वे दुःखी महसूस करने लगे, क्योंकि अब उनके परिवार में उनके साथ कोई भी नहीं था। किन्तु उन्होंने हार नहीं मानी और अपनी पढ़ाई पूरी करने का फैसला किया। उन्होंने सीकर में हाई स्कूल की पढ़ाई की. दीनदयाल जी बचपन से काफी बुद्धिमान, तेज एवं उज्ज्वल भविष्य के थे. उन्होंने स्कूल एवं कॉलेज में कई स्वर्ण पदक एवं प्रतिष्ठित पुरस्कार जीते. महाराजा कल्याण सिंह जी ने उन्हें पुरस्कार के रूप में किताबों के लिए ढाइसों रूपये और मासिक आधार पर दस रूपये प्रदान किये. उन्होंने पिलानी में जीडी बिड़ला कॉलेज में प्रवेश लिया था, और वहां उन्होंने इंटरमीडिएट की शिक्षा प्राप्त की. इसमें वे प्रथम श्रेणी में पास हुए. इसके बाद वे कानपूर चले गये. वहां उन्होंने कानपुर विश्वविद्यालय में सनातन धार्मिक कॉलेज से अपनी बी ए यानि स्नातक की डिग्री प्राप्त की. इसमें भी वे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए.
फिर उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में एमए करने का फैसला किया और वे उसकी पढाई करने के लिए आगरा गये. किन्तु उनके मामा की बेटी के अचानक बीमार हो जाने के कारण उन्होंने अपनी एमए की पढ़ाई पूरी नहीं की और बीच में ही छोड़ दी. इस दौरान उनकी बहन का भी देहांत हो गया. फिर उन्होंने सिविल सेवा परीक्षा भी दी, जिसको उन्होंने उत्तीर्ण कर लिया था. लेकिन उनकी रुचि आम जनता के लिए सेवा के प्रति अधिक थी, इसलिए उन्होंने नौकरी नहीं की ।

सामाजिक योगदान :

दीनदयाल जी को बचपन से ही समाज सेवा में समर्पित होने के संस्कार प्राप्त थे. सन 1937 में जब उन्होंने अपनी बीए की परीक्षा को प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद एमए में प्रवेश लिया था, तब वे अपने दोस्त बलवंत महाशब्दे के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में शामिल हुए. उस समय, उनके साथ एक और साथी, सुंदर सिंह भंडारी, भी उस संघ के साथ जुड़े।उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केबी हेडगेवार के साथ मुलाकात की, और खुद को पूरी तरह से संगठन में समर्पित करने का फैसला किया. सन 1942 से वे पूरे समय के लिए इस संघ के साथ जुड़कर उसके लिए काम करने लगे. उन्होंने संघ शिक्षा में प्रशिक्षणलेने के लिए नागपुर में 40 दिनों के ग्रीष्मकालीन आरएसएस शिविर में भाग लिया और फिर इसके प्रचारक बने. 1955 में, वे प्रचार के रूप में उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले में काम करने लगे। 1951 में, भारतीय जन संघ की स्थापना डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी ने की थी, जिसमें पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी पहले उत्तर प्रदेश शाखा के महासचिव थे और बाद में अखिल भारतीय महासचिव के रूप में नियुक्त किए गए। डॉ श्यामा प्रसाद जी उनकी बुद्धिमत्ता और विचारधारा से इतने प्रभावित थे, कि उन्होंने उनके लिए कहां की ‘अगर मेरे पास दो दीनदयाल होते, तो मैं भारत के राजनीतिक चेहरे को बदल देता ”. किन्तु सन 1953 में डॉ श्यामा प्रसाद जी की मृत्यु हो जाने के कारण इस संघ की पूरी जिम्मेदारी दीनदयाल जी पर आ गई. उन्होंने इस पार्टी से 15 सालों तक संबंध बनाए रखे और इससे भारत की एक मजबूत राजनीतिक दल बनी, जिसके बाद वे इस पार्टी के अध्यक्ष नियुक्त हुए।. उसके बाद वे उत्तरप्रदेश के लोकसभा चुनाव के लिए खड़े हुए, लेकिन वे लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में नाकाम रहे और इस चुनाव में उनकी हार हुई. वर्तमान में यही भारतीय जनसंघ को भारतीय जनता पार्टी के नाम से जाता है।दीनदयाल जी इन सभी के अलावा एक विचारक भी थे. वे अपनी समृद्ध संस्कृति के आधार पर देश को बढ़ावा एवं उसका विकास करना चाहते थे और अंग्रेजों द्वारा छोड़ी गई पश्चिमी अवधारणाओं को ख़त्म करना चाहते थे. आजादी के तुरंत बाद भारत में लोकतंत्र की स्थापना हुई थी, लेकिन दीनदयाल जी गुलामी के इन वर्षों के बाद भारत के बारे में थोड़ा चिंतित थे. उन्हें यह बात स्पष्ट थी कि भारत में लोकतंत्र की उपलब्धि अंग्रेजों की देन नहीं है।. उन्होंने लोगों की सोच बदली कि लोकतंत्र केवल लोगों को गुलाम बनाने एवं उनका शोषण करने के लिए नहीं है, बल्कि मजदूरों की समस्याओं को दूर करने के लिए हैं.
उन्होंने कहा था कि वे अपनी समस्याओं को सरकार के सामने लेकर उनका समाधान चाहते हैं। उनके अनुसार, किसी भी व्यक्ति को अपने दृष्टिकोण को साझा करने का पूरा अधिकार होता है। प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान किया जाना चाहिए और शासन में शामिल किया जाना चाहिए. इस विचारधारा के चलते उन्होंने देश में लोकतंत्र की एक अलग परिभाषा को जन्म दिया ।दीनदयाल जी मानवतावाद को अधिक बढ़ावा देते थे. उन्होंने मानवतावाद को अपनी अनूठी परिभाषा में व्यक्त किया। उनका कहना था कि “ मानव एक शरीर मात्र नहीं है, बल्कि वह एक मन, बुद्धि और आत्मा भी है. इसके बिना मानव शरीर का कोई अर्थ नहीं है “।  साथ ही उनका कहना था कि स्वतंत्र भारत को लोकतंत्र, व्यक्तिगत, समाजवाद, पूँजीवाद आदि जैसी पश्चिमी अवधारणाओं पर निर्भर नहीं होना चाहिए. क्योंकि यह भारत की सोच के विकास और उसके विस्तार में अड़चन डालने के लिए हैं. इससे देश का विकास नहीं हो सकता है । अपने समाज सेवा और सुधारों के कार्यो के चलते इन्हे जनसंघ पार्टी ने अपना अध्यक्ष घोषित किया. उपाध्याय जी एक आलराउंडर राजनेता थे, लेकिन वे इस पद के लिए केवल 43 दिनों तक की कार्यरत रहे.

मृत्यु :

वे जनसंघ पार्टी के अध्यक्ष पद पर केवल 43 दिनों तक ही कार्यरत रह सके, क्योंकि 44 वें दिन यानि 11 फरवरी सन 1968 की सुबह उन्हें मुगल सराई रेलवे स्टेशन के पास मृत पाया गया. सुना जाता है कि दीनदयाल जी बजट सत्र के लिए पटना की ओर अपने सफर पर निकले थे।. इसके बाद मुगलसराय स्टेशन के पास उनकी बोगी ट्रेन से अलग हो गई.
उनकी ट्रेन पर चोरों ने हमला किया था, और उनकी मौत का संदेह है, लेकिन यह सिर्फ एक अनुमान है। उनकी मृत्यु का रहस्य अब भी अनसुलझा है। 12 फरवरी को, तत्कालीन भारतीय राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन, प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी और मोरारजी देसाई ने अन्य प्रमुख नेताओं के साथ उन्हें श्रद्धांजलि दी। उस दिन दिल्ली में सभी कार्यालयों एवं दुकानों को बंद रखा गया था. देशवासी अपने एक महान नेता को श्रद्धांजली देने के लिए राजेन्द्र प्रसाद मार्ग पर चल दिए थे। सन 2016 में बीजेपी सरकार ने उनके नाम पर कई सार्वजनिक संस्थानों का नाम रखा. इनके नाम पर दिल्ली में एक सड़क मार्ग भी है. यहाँ तक की इनके नाम से सरकार ने बहुत सी योजनाओं की शुरूआत की है.
अगस्त 2017 में, उत्तर प्रदेश में बीजेपी राज्य सरकार ने मुग़लसराई स्टेशन का नाम पंडित दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन रखने का प्रस्ताव दिया, क्योंकि उनका शव उसी स्टेशन के पास मिला था। लेकिन इसका काफी विरोध किया गया, समाजवादी पार्टी का कहना है कि स्टेशन का नाम नहीं बदलना चाहिए, क्योकि दीनदयाल जी का स्वतंत्रता संग्राम में कोई योगदान नहीं था. इसके अलावा दीनदयाल रिसर्च इंस्टिट्यूट पर भी उपाध्याय जी एवं उनके कार्य के लिए प्रश्न उठाये गये हैं ।


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